सामान्य वर्ग को आरक्षण देने के खिलाफ SC में याचिका दाखिल, कहा- असंवैधानिक है बिल
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गरीब सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण के फैसले को केंद्र की मोदी सरकार अपने कार्यकाल के अंतिम समय की उपलब्धि मान रही है. लालू यादव के राजद को छोड़कर ज्यादातर पार्टियां इस उपलब्धि को भुनाने में जुटी हैं. भाजपा की सहयोगी जदयू तो दो कदम आगे बढ़कर खुद को सवर्ण आरक्षण का जनक ही घोषित करने में लगी है. बिहार में सवर्ण जातियों के शैक्षणिक व आर्थिक हालात का जायजा लेने के लिए 2011 में सवर्ण आयोग का गठन किया गया था.
दरअसल, 2010 का विधानसभा चुनाव ही सवर्ण आरक्षण के नाम पर लड़ा गया था. लालू यादव ने सवर्ण आरक्षण का मुद्दा उठाया था तो बदले में नीतीश कुमार ने भी सुर में सुर मिला दिया. नीतीश दोबारा सत्ता में आए और 2011 में सवर्ण आयोग का गठन किया गया. 27 जनवरी 2011 को कैबिनेट ने सवर्ण आयोग बनाने को मंजूरी दे दी. इसके साथ ही सवर्ण आयोग बनाने वाला बिहार अकेला राज्य बन गया था. मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद से ही लगभग सभी पार्टियां ऊंची जाति के गरीबों की हिमायत करती रही हैं. वे कहती रही हैं कि ऊंची जाति में जो गरीब लोग हैं, उन्हें सरकारी योजनाओं का फायदा मिलना चाहिए.
इलाहाबाद हाइकोर्ट के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश डीके त्रिवेदी की अध्यक्षता में आयोग बना. इसके उपाध्यक्ष कृष्णा प्रसाद सिंह बनाये गये थे और सदस्यों में नरेंद्र प्रसाद सिंह, फरहत अब्बास व संजय मयूख प्रकाश शामिल थे. बाद में भाजपा कोटे संजय मयूख के आयोग से हट जाने के बाद रिपुदमन श्रीवास्तव सदस्य बनाये गये थे. आयोग ने 25 मई 2011 को घोषणा की थी कि अगले छह महीने में वह सरकार को रिपोर्ट सौंप देगी. 2013 में आयोग ने 11 जिलों के सव्रेक्षण के आधार पर सरकार को एक रिपोर्ट दी थी.
क्या थी सवर्ण आयोग की सिफारिशें?
– सालाना डेढ़ लाख से कम कमानेवाले सवर्ण परिवार माने जायेंगे गरीब.
– गरीब सवर्णो को सभी कल्याणकारी योजनाओं के दायरे में रखने की अनुशंसा.
– कक्षा एक से दस तक के छात्र जिनकी पारिवारिक आय डेढ़ लाख या उससे कम होगी वैसे उंची जाति के छात्रों को भी छात्रवृत्ति मिले.
– लेकिन ये जानना भी जरुरी है कि आयोग का गठन क्या पता करने के लिए हुआ था ….
– ऊंची जातियों में शैक्षणिक व आर्थिक रूप से कमजोर समूह की पहचान करना.
– ऊंची जातियों में ऐसे वर्ग की पहचान करना जिनके पास दूसरे वर्ग की तुलना में आर्थिक लाभ के सीमित श्रोत हैं, जिसमें जमीन भी शामिल है. और उनके पुश्तैनी धंधे की महत्ता कम हो रही है, इसका आकलन करना.
– उनके पिछड़ेपन के कारणों की तलाश करना और उनके व्यापक हित में सुझाव देना.
– राज्य सरकार आर्थिक आधार पर एक पैमाना तय कर जिससे ऊंची जाति के उन लोगों की पहचान की जा सके जो प्रतिकृल परिस्थितियों में रह रहे हैं.
सवर्ण आयोग की सिफारिशों पर नीतीश सरकार ने अमल शुरू किया और सालाना डेढ़ लाख रुपये से कम आमदनी वाले सवर्ण जाति के परिवारों के जो बच्चे प्रथम श्रेणी में दसवीं की परीक्षा पास करेंगे, उन्हें दस हजार रुपये की प्रोत्साहन राशि शुरु की गई. आयोग की अन्य सिफारिशों को लागू करने के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में कमेटी बनाई गई. जिसे संबंधित विभागों से विमर्श कर तीन महीने में अपनी रिपोर्ट सरकार को देनी थी. इसके बाद आयोग और उसकी सिफारिशों का क्या हुआ सब भूल गये. हां सवर्ण आरक्षण के नाम पर राजनीति करना कोई नहीं भूला. सवर्ण आरक्षण एक राजनीतिक मुद्दा बन गया. जब भी सवर्ण आरक्षण की बात उठी नीतीश कुमार और जदयू ने इस राजनीतिक मुद्दे पर अपना पहला हक माना. आज सवर्ण आरक्षण का विरोध करने वाली राजद भी तब इसकी हिमायती थी. आज केंद्र की मोदी सरकार ने गरीब सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला ही नहीं किया बल्कि इससे संबंधित संविधान संसोधन भी दोनों सदनों में पास करा लिया. ऐसे में आज भी जदयू नेता यही कह रहे हैं कि नीतीश कुमार इस देश के वो पहले नेता हैं जिन्होंने सवर्ण आरक्षण की दिशा में पहला कदम उठाया था.